भेड़चाल के विरुद्ध
मैं बढ़ती जा रही थी आगे ....और आगे,भीड़ का एक हिस्सा ही थी उस वक़्त।अचानक पीछे से मेरे कानों में आवाज आई....विनय..कोई बड़ी तेज आवाज में मेरा नाम पुकार रहा था।एक पल को ठिठकी और मुड़कर देखा तो पाया,विनय मैं अकेली ही नही और भी कोई है।मैं वापस मुड़कर फिर से चलने लगी।इस बार मेरे कदम थोड़ा तेज उठ रहे थे।
अचानक फिर से कानों में आवाज आई लेकिन इस बार फुसफुसाहट सी।कोई बड़े हल्के सुर में मेरा नाम लेकर पुकार रहा था।मुड़कर देखा तो कोई नजर नही आया।
चलने को हुई तो फिर से आवाज आई।"तुम भीड़ का हिस्सा कब से बनने लगी। " एक जोरदार झटका लगा मुझे।सर उठाकर आस पास देखा तो सब कुछ अपरिचित सा।ऐसे क्या देख रही हो...मेरे कानों में फिर से वो हल्की सी आवाज आई लेकिन इस बार वो मुझे बड़ी मधुर लगी।मेरे अधरों पर मुस्कान खेलने लगी।गर्दन को हल्का सा झटका दिया और मैं वापिस मुड़ गयी।
कदमों को एक बारगी फिर तेजी दी और अपनी धुन में मस्त चलने लगी।इस बार मुझे सामने से आती हुई भीड़ स्पष्ट नजर आ रही थी लेकिन मैं उसका हिस्सा नही थी।कोई मुझे घूर रहा था तो कोई मुंह बिचका रहा था,कोई मुझ पर हंस भी रहा था।इन सबसे बेपरवाह मैं मस्ती में झूमकर चलने लगी।मेरी चाल में एक लय आने लगी।
थोड़ी दूर जाकर जब मैंने मुड़कर देखा तो कुछ लोगों को अपने पीछे आते पाया।सभी के चेहरे पर एक सन्तोष और विश्वास को पाया।दूर कहीं एक धुंधला सा साया दिखा जो कह रहा था ....हाँ ...देखो न ,यही तो है असली विनय।
विनय...दिल से बस यूं ही