एक था बचपन
सुदामा के घर के सामने आकर चमचमाती होण्डासिटी आकर रुकी,सारा गांव कौतुहल बस देखने लगा,
बाप रे--इतनी बड़ी गाड़ी, कौन होगा इसमें ? ,
सुदामा शिक्षक पद से सेवा निवृत्त होकर अपना एकांकी जीवन जी रहे थे,दरासल सुदामा अपने भाई बहनों में सबसे बड़े थे, भाई बहनों को खूब चाहते थे, उनकी नौकरी लगी ही थी कि अचानक माता पिता दोनों का स्वर्गवास हो गया, सुदामा ने अपने भाई बहनों को अपना जीवन समर्पित कर दिया, आजीवन शादी न करते हुए सारा जीवन ज्ञान देने और भाई बहनों के उत्थान में लगा दिया, और भाई बहन अपने पैरों पर खड़े होते ही सुदामा से दूर होते चले गए।
और जिस दिन सुदामा सेवा निवृत्त हुए उस दिन सभी भाई बहन इकट्ठे हुए थे, सुदामा ने अपनी जिंदगी की सारी कमाई भाई बहनों को देकर कहा:-हालांकि मुझे पता है आज तुम सभी समृद्ध हो, पर मैं बड़ा होने का दायित्व निभा रहा हूं, ये सभी रूपया आपस में बांट लो, कभी जरूरत हो तो मुझे बोल देना अभी भी पेंशन इतनी मिलेगी कि मैं आराम से अपना खर्च खुद उठा सकता हूं।
और पैसों का बंटवारा होते ही भाई बहन गधे के सिर के सींगों की तरह गायव हो गए, पिछले पन्द्रह सालों से कोई भी नहीं आया सुदामा से मिलने, सुदामा भी किसी के पास जाना पसंद नहीं करते थे, वो अपने लेखन और पठन पाठन में जिंदगी बिता रहे थे।
किंतु 75 वर्षिक सुदामा ने अब खाट पकड़ ली थी, भाई बहनों को अडोस पड़ोस के लोगों ने सूचना दे दी थी किंतु आज तक कोई नहीं आया,
पर आज इतनी आलीशान गाड़ी आकर रुकी तो कौतूहल होना स्वाभाविक था,।
गाड़ी के रुकते ही एक ऊंचा पूरा अधिकारी सा दिखने वाला युवा निकल कर सुदामा के घर में चला गया, पड़ोसी बैठे हुए थे, युवा ने सभी को नमस्कार किया और सुदामा के पास जाकर पूछा- कैसे हो गुरु जी?
सुदामा- क्षमा चाहता हूं मैं आपको पहचान नहीं पाया???
युवा-गुरु जी मैं लखन हूं, जब आप कुंदनपुर में पढ़ाते थे तब आपने ही मुझे पुस्तकें और कपड़े दिलवा कर पढ़ाई में सहयोग किया था याद आया????
आज आपके आशीर्वाद से मैं यहां पर कलेक्टर बन गया आया हूं, पर यहां आते ही मुझे पता चला कि आपकी यह दशा है तो रोक नहीं पाया खुद को ,।
इतना कह कर लखन ने पड़ोसियों से कहा-आपने गुरु जी की जो सेवा की है, एक कलेक्टर के दरवाजे आप सभी के लिए सदैव खुले रहेंगे।
और फिर लखन ने सुदामा को अपने साथ गाड़ी में बिठा कर गांव वालों से विदा ली,
सुदामा अतीत में खोते चले गए उन्हें याद वह अनाथ लड़का जो सभु को बहुत ही निरीह आंखों से देखा करता था, आज वो यतीम कलेक्टर बन चुका था, सुदामा लखन को भरी हुई नजरों से देख रहे थे,
आज सुदामा कलेक्टर के घर में पिता की हैसियत से निवास कर रहे हैं, तभी एक प्रकाशक ने लखन को एक पुस्तक भेंट की, जिसका शीर्षक था, "एक था बचपन"!
लेखक
सुदामा।।।।
रचना
भरत सिंह रावत भोपाल