कहां रह गए वो मंजर , जहां हम बेकोफ होकर जीते थे । जहां पापा की फटकार और मां का दुलार होता था । जहा एक चीज लेने के लिए सब बैठ कर सलाह किया करते थे। वो आम के मौसम मैं एक आम के लिए लड़ना , छत पर वो बिना पंखे के सब का एक साथ रात गुजारना । कहां गए वो अपने और कहां गए वो दिन ।