#काव्योत्सव -2.0
बस गई हूँ मैं
भले ही नजर से दूर हूँ
पर महसूस करो तो
पाओगे अपने नजदीक
आसपास ही मुझे ,
अपनी लयबद्ध सांसो में
अपनी मुस्कुराहट में
अपनी आदतों में
यहां तक की अपनी
रूह में भी पाओगे
मुझे ही क्योंकि
बस चुकी हूं मैं
तुम्हारी रग रग में
बन चुकी हूं मैं
अभिन्न हिस्सा
तुम्हारे वजूद का।
मौलिक एवं स्वरचित
डॉ . मनीषा शर्मा