"शादीशुदा प्रेम'
"यह तुम शादीशुदा मर्द भी कितने अजीब होते हो
प्रेम अगर हो जाए पत्नी से तो
जमीन आसमान इक करते हो
एकाधिकार तुम्हारा ही हैं
इस दिल पर
जानते हुए भी
बार बार झांकते हो
हर दरीचे की
हलकी सी भी दरारों से
और नही छोड़ते
जरा भी गुंजाईश
ताका झांकी की
किसी और की। खाना कितना भी अच्छा हो बना
निकलता नही लफ्ज़ जुबान से
कभी आँखों की चमक से
तो कभी स्नेहिल स्पर्श से बयां करते हो
तुम शादीशुदा मर्द भी कितने अजीब होते हो
सज संवर कर अगर जाए कही तुम्हारी जाने जिगर
नीचे से ऊपर तक निगेहबानी करते हो
खुद किसी से भी बतियाते रहो
बीबी को अपनी आँखों के घेरे में रखते हो
सबकी नजरे पढने की कोशिश में
अपने सरमाये में उसे महफूज़ रखते हो
कमर या कंधे पर रखा तुम्हारा हाथ
कितना मजबूत करता हैं मनो बल
जानते हुए भी
सरे आम दो कदम दूर से बात करते हो
तुम शादी शुदा मर्द भी कितना अजीब होते हो
उम्र के हर मुकाम पर
बदल जाते हैं तुम्हारे तौर तरीके
प्यार जताने के लहजे
आँखों के नीचे के काले घेरे
उड़ते सफ़ेद होते बाल
घुटने के दर्द से बदलती चाल
निस्तेज _ ड्राई होती शरीर की खाल
फिर भी बीबी को गुलाब लगते हो
तुम शादीशुदा मर्द भी कितना अजीब होते हो
प्यार के इज़हार में मुफलिस से
लाखो की भीड़ में अपने अपने
बच्चो के भविष्य को जदोजहद करते
बीबी से नज़रे बचाकर माँ की मुट्ठी भरते
बहन की हर आह पर सिसकते
निशब्द जिन्दगी जीते हुए
अपने लिय न सोच कर
बीबी के झुमके लिय के साल भर
ऑफिस में फाके करते हो
तुम शादी शुदा मर्द भी कितना अजीब होते हो
प्यार मोहताज नही होता तारीखों का
कहकर अक्सर भूल जाया करते हो सब तारीख़े जिंदगी की
भी गुस्ताखी हो भी जाए
तुम्हारी प्यारी इस जान से
मुआफ दिल से करते हो
फाकाकशी के दिन हो या व्यस्त माहौल हो
प्रेम की स्वप्निल दुनिया की सैर साथ किया करते हो
इक बार का समर्पण
उम्र भर की अब हो जरुरत
अग्नि को साक्षी मान वादा करते हो
तुम शादी शुदा मर्द भी कितना अजीब होते हो
प्यार का इज़हार लफ्जों से नही
अपने स्नेहिल स्पर्श और आँखों की चमक से करते हो ..................... नीलिमा शर्मा