रात सुनसान व बोझिल सी है
फिर मुझे नींद नहीं आएगी
थक चुके जिस्मो-रूह उनींदे
कल्पनाएं भी थकी जाती हैं
कोई चुपके से थपक दे आकर
कोई माँ बनके सुला दे मुझको
या बता दे है कहां सहर मेरी
है शबे-हिज़्र रौशनी मद्धम
दरो-दीवार पे चिपका चुप है
जुबां भी और हवा भी चुप है
सोचता हूं किसी मकड़ी की तरह
कोई चुपचाप मकां बुन के कहे
आओ कि बांट लें बराबर हम
हम तुम्हारे व तुम हमारे ग़म
कि जहां जि़ंदगी की शाम कटे
कि जहां प्यार हो आज़ादी हो
कि जहां तीर भी क़लम की तरह
गुनगुनाती हों अमन की नज़्में
आओ, कि चीर दें अंधियारे को
हो गई सुब्ह, खोल लें खिड़की
अब नहीं ख़्वाब देखने का शगुन
अब नहीं नींद की ज़रूरत है।।।।