शिक्षा (लघुकथा)
अबकी बार बूढ़ा धोबी जब उनके कपड़े प्रेस करके लाया तो उसके साथ एक किशोर लड़का भी था।
बूढ़ा बोला - अब से आपके पास ये मेरा बेटा आया करेगा,ये आपके कपड़े भी ले आएगा और यदि आप इसे थोड़ी देर पढ़ा दिया करेंगे तो आपका अहसान होगा,आपकी फ़ीस तो मैं दूंगा ही।
उनकी फ़ीस सुनकर धोबी को एक बार तो लगा जैसे गर्म प्रेस से हाथ छू गया हो। पर इसका तो वो अभ्यस्त था ही,बात तय हो गई।
कुछ दिन बाद बुजुर्ग और पारखी धोबी को महसूस हुआ कि उनके कपड़ों की क्रीज जितनी नुकीली बनती है उतना उसके लड़के का दिमाग़ नहीं पैना हो पा रहा है।और लड़का अब धोबी का काम करने में भी शर्म महसूस करने लगा है। उसे अब उनकी फ़ीस ज़्यादा और अपना मेहनताना कम लगने लगा। उसने लड़के को समझाया कि उनसे प्रेस की दर कुछ बढ़ाने की अनुनय करे।
लड़के ने संकोच के साथ अपने पिता की बात अपने शिक्षक को बताई। शिक्षक यानी वे, बोले - नए साल से पैसे बढ़ा देंगे। पिता-पुत्र संतुष्ट हो गए।
जनवरी में लड़के ने पैसे कुछ बढ़ाने के लिए कहा तो वे हंस कर बोले- अरे ये तो अंग्रेजों का नया साल है,हमारा थोड़े ही है। लड़का चुप रह गया।
अप्रैल में लड़के ने झिझकते हुए उन्हें फ़िर दर बढ़ाने की बात याद दिलाई।
वे तपाक से बोले- अरे ये तो व्यापारियों का नया साल है,हमारा थोड़े ही। लड़का मन मार कर चुप रहा।
जुलाई में लड़के के स्कूल में नया सत्र शुरू होने पर उसने कहा- सर, अब तो शिक्षा का नया साल है, आप मेरे पैसे बढ़ाएंगे?
वे बोले,अरे रुपए पैसे की बात तो दीवाली से करते हैं, लक्ष्मी का त्यौहार वही है, ये तो ज्ञान का त्यौहार है। लड़का सहम कर चुप हो गया।
कुछ दिन बाद वे परिहास में लड़के से बोले- आज गुरु पूर्णिमा है,हर विद्यार्थी अपने गुरू को कुछ उपहार देता है, तुम मुझे क्या दोगे?
(...जारी,शेष अगले भाग में)