मैं बचपन से पढ़ने में काफ़ी तेज था और हमेशा क्लास में फर्स्ट ही आता था।साथ ही मुझे डिबेट,पेंटिंग आदि का भी बहुत शौक था,जिसके लिए अच्छे अंकों के चलते मुझे रोका-टोका नहीं जाता था। संयोग से हायर सैकेंडरी बोर्ड की परीक्षा में मेरी रसायन शास्त्र विषय में सप्लीमेंट्री आ गई।बस,सब के व्यंग्य बाणों का सिलसिला शुरु हो गया।मैं अपनी सफ़ाई में बार-बार कहता रहा कि मैं साइंस नहीं पढ़ना चाहता,मुझे विषय बदलने हैं, इसीलिए मैंने मेहनत नहीं की है।मैं साहित्य पढ़ना चाहता था।
मेरे पिता जो वाइस प्रिंसिपल और अंग्रेजी के अध्यापक थे,कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर चले गए।वे जाते जाते मुझे टोलस्टाय और समरसेट माम की किताबें पढ़ने के लिए दे गये।मैंने इसे पिता का बेटे की विफलता पर व्यंग्य-कटाक्ष समझा और निरीहता से किताब पढ़ने लगा।
किन्तु बाद में मुझे पता चला कि मेरे पिता ने कई उच्चाधिकारियों से मिल कर बोर्ड मेंं मेरी न केवल कापी की दोबारा जांच ही करवाई, बल्कि मेरे प्रिंसिपल और पिता ने मेरा पक्ष भी उच्चाधिकारियों के समक्ष रख कर परीक्षा में हुई त्रुटि को उजागर करवाया।
मैं पिता के आगे नतमस्तक हो गया।मुझे उनसे ये सीख भी मिली कि जीवन मेंं एक राह बंद होने पर हताशा से बेहतर है दूसरी राह के लिए खुद को तैयार करना।पिता मुझे अब भी याद आते हैं।