विस्मृति।
ले आई हूंँ, विस्मृति का काढ़ा,
इसे पी लेना औषधि की तरह।
घूंटघूंटकर इसे गटकना,
मिटती जाए एक-एक कटु स्मृतियाँ।
जो मन में गहरी पैठ जाए तो,
रोगग्रस्त कर देती है।
जैसे हो कोई पक्षाघात,
सब कुछ अस्त-व्यस्त कर देती है।
बार -बार तुम्हें समझाऊं,
विस्मृति की महिमा बतलाऊं,
सुनो सखी दृढ़ता दिखलाओं,
ऐसे भी क्या बैठे रहना,स्मृतियों के ढेर पर।
हो जाती है रे दुर्घटना,
बिना भीत सी टूटी हुईं मुंडेर पर।
भूलों उसको जो तुमको भूला,
रोकों उन यादों का झूला।
नयी स्मृति है बांट निहारे।
मन को कर लो इतना पावन,
जो पूज्य नदी के रहें किनारें।
शुचिता इसकी बनी रहेगी,
झाड़-बुहार अपने मन को,
तुम स्वच्छ सुंदर कर लेना।
नया स्मृतिपुंज,फिर आएगा द्वारे।
अपने जीवन में नयी ऊर्जा भर लेना।
कविता नागर