#बचपन
धुला धुला यें स्वच्छ स्वरूप, मन को क्यों ना भाता है।
माटी की खुशबू में लिपटा,मटमैला बचपन याद आता है।
बिन चिंता किए भटकते थे,बाग-बाग और फुलवारी।
सोना-चाँदी न हीरे-मोती,एक तितली लगती थी प्यारी।
वस्त्र आभूषण भरे पड़े है,फिर भी मन को कुछ ना भाता है।
दो पोशाकों में वर्ष बिताने वाला वो बचपन याद आता है।
नित नये -नये पकवानों का मन लुत्फ रोज उठाता है।
खट्टी-मीठी संतरा गोली वाला बचपन याद आता है।
नित नये नये खेल है खेले,यूँ जीवन चलता जाता है।
संगी-साथी संग जो खेले,वो खेल याद दिलाता है।
कविता नागर