तुमसे मिलने से पहलेकी,
पूरी रातका जगरता हो गया।
कोई अलग सी उमंग थी!
ईतने सालों बाद मिलेंगें!
कैसे हो गए होंगे तुम?
कैसे दिख रहे होंगे अब?
मुझे देख कैसा महसूस
करोगे तुम?
इन सवालोंकी झड़ियाँ,
कुछ किए हुए वादों के साथ
मानों जुगलबंदी कर रही थी!
"उसे याद तो हो वो वादें!
तुम अकेली ही पहेलियाँ
न बुझाया करो।
कभी वह क्या सोचता है,
वो भी सोचा करो।"
पर,तुम जानते हो मुझे,
मेरे हर अंदाज़को,
मेरी हर ख्वाहिशोंको भी पहचानते हो!
फिर भी,न जाने क्यों नींद उड़न छू हो गई!
अब, जब कि तुम मिले हो....
तो देखोना,
वह असमंजसकी, जगरतेवाली रातके कारण,
आँखों तले काले घेरे आ गए हैं!
होंठो ने जैसे चुप्पी ही साध ली हैं!
हमेशा बतियाती हुई मैं,
बातें खोजने लगी हुँ!
वैसे बात कुछ भी नहीं थी,
फ़िर भी बहुत कुछ थी!
तुम तो बिलकुल ही नही बदले हो!
वही हँसी, वही ठहाके,
वही सभीसे अपनापन दिखानेवाली
बातों का अंदाज़!
वो ही कत्थाई बड़ी बड़ी आँखें,
पर हाँ!उस पर एनकी पहरे लग गए हैं!
इतनें सालों बाद मिलके,
जो इतनें सालों तक सोचा था,
कुछ न कह सकी और कुछ न कर पाई मैं,
बस बुद्धू की बुद्धू ही रही मैं!
कुंतल भट्ट"कुल"