ओ मेरी सखी,
तुम भांप लेती हो मेरी व्यथा,
मेरी बेचैनी, हर परेशानी,
हाथ पर हाथ धरकर,
देती हो मूक सांत्वना,
कह देती हो धैर्य बंधाते
प्रेम भरे दो बोल,
चाय के प्याले के साथ
बांट लेते हैं अपनी पीड़ा,
हम बिना किसी संकोच के,
न कोई प्रतिबंध,
न विशेष अपेक्षा,
यह बन्धन बस मन का,
कब से कब तक, ज्ञात नहीं,
बस एक सुखद अहसास,
हम साथ-साथ हैं।
रमा शर्मा 'मानवी'
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