वो बचपन की धुंधलकी याद अब प्यारी सी लगती है
समझता था जिसे जन्नत वो गोद न्यारी सी लगती है
समझता था बड़ा अपने को उसकी गोद में चढ़कर
नहीं दूजा कोई था सुख उसकी गोद से बढ़कर
वो पल छिन याद जब आते वो दुनिया भली लगती है
सुनहरे दिन वो छुटपन के मासूम सी कली लगती है
वो दिन आया बिछड़ने का वो मेरी प्यारी बहना थी सजाने चली दूजा घर जो मेरे घर की गहना थी
विदाई कैसे देखूंगा बहन की सोचा मैं रुककर
तत्क्षण अश्रु बह निकले मेरे पोंछा उन्हें छुपकर
करुण क्रंदन बहन का सुनता मैं यह तो असंभव था
कान को बंद कर छुपना ही मेरे लिए संभव था
हुआ आश्वस्त अपने से धीरे से कान को खोला
नज़र दौड़ाई उस रस्ते में जहां से गुज़रा बहन का डोला
बहने क्यों छोड़ कर जाती यह रीति अटपटी लगती है
बिछड़कर बहन से भाई की दुनिया लुटी - लुटी लगती है

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Hindi Poem by सुधाकर मिश्र ” सरस ” : 111630961
सुधाकर मिश्र ” सरस ” 3 year ago

धन्यवाद शेखर जी।

shekhar kharadi Idriya 3 year ago

बेहतरीन प्रस्तुति...

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