तुम जान लो अहिल्या अब राम नहीं आयेंगे
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जीवित हैं आज भी बहुत सी अहिल्या
मुक्ति पाने को अपने प्रस्तर हो चुके जीवन से।
कर रही हैं प्रतीक्षा किसी के स्पर्श की
पर उन्हें राम नहीं मिलते।
वह जूझ रही हैं एक डर से
उस डर से जो निगल रहा है उनकी रोशनी
वह रोशनी जो बंद हो गई उनके ही हृदय में।
विचलित है पीडित है
खुद के ही भय से।
सामना करने की हिम्मत नहीं कर पाती
क्योंकि जानती हैं कि अब राम नहीं मिलते।
आते हैं कुछ लोग अतिथि बनकर
विचारों का जाल फैला कर दबोच लेते हैं मकडी बन
शोषण किया जा रहा है यह जानता ही नहीं मासूम मन।
वह बस यकीन करना चाहती है
उम्र पर अनुभव पर और स्वर पर
जानती नहीं इंद्र भी आया था छलिया बन
वह अहिल्या नहीं जानती ,
कि हर समय में उसका पुर्नजन्म होगा और
यूँही जीयेगी शिला बन,
पर इस बार राम नहीं आयेंगे
बल्कि हर बार आरोप उसके हृदय को
और विष से बींध जायेंगे
आवाज में उसके दर्द तो होगा जरूर
पर दुनिया के कान बहरे हो जायेंगे।
करती रहेगी प्रतीक्षा ऐसे ही लेकिन
नासमझ नहीं जानती कि अब राम नहीं आयेंगे
बचपन में उसे कहना नहीं आया
यह गलती थी उसकी।
शायद उसे मालूम ही नहीं कि
औरत का जन्म बचपन से ही उसे व्यस्क बना देता है
तभी तो कोई भी आकर उसके शरीर पर
अपने चिन्ह भेंट दे जाता है
झिंझोड़ जाता है उसके मस्तिष्क को
और छोड़ देता है एक अमिट छाप
जिससे रगड कर वह रोज साफ करती है लेकिन
हर सुबह वह निशान और गहरा दिखता है
ऐसा होता है क्योंकि उसे मिटाने अब राम नहीं आयेंगे
इसलिए अहिल्या तुम्हारे जन्म के साथ
यह किस्से यूँहीं दोहराएं जायेंगे।
दिव्या राकेश शर्मा।