जहाँ से खुद को पाया

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गाँव की सुबह हमेशा की तरह शांत थी। हल्की धूप खेतों पर फैल रही थी, हवा में मिट्टी की सोंधी खुशबू घुली हुई थी। वह उसी गाँव में पला-बढ़ा था, सयुग जहाँ हर कोई एक-दूसरे को नाम से जानता था। ‎जहाँ शाम होते ही चौपाल भर जाती थी और रात को घरों से चूल्हे की आँच झलकती थी। सयुग के लिए यह गाँव ही उसकी पूरी दुनिया था। ‎ ‎उसके पिता सीधे-सादे किसान थे। कम बोलते थे, ज़्यादा सोचते थे। माँ हर वक़्त उसके लिए चिंतित रहती थी, लेकिन चेहरे पर सख़्ती कभी नहीं आने देती थी।

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जहाँ से खुद को पाया - 1

Part .1‎‎गाँव की सुबह हमेशा की तरह शांत थी। हल्की धूप खेतों पर फैल रही थी, हवा में मिट्टी सोंधी खुशबू घुली हुई थी। वह उसी गाँव में पला-बढ़ा था, सयुग जहाँ हर कोई एक-दूसरे को नाम से जानता था।‎जहाँ शाम होते ही चौपाल भर जाती थी और रात को घरों से चूल्हे की आँच झलकती थी। सयुग के लिए यह गाँव ही उसकी पूरी दुनिया था।‎‎उसके पिता सीधे-सादे किसान थे। कम बोलते थे, ज़्यादा सोचते थे। माँ हर वक़्त उसके लिए चिंतित रहती थी, लेकिन चेहरे पर सख़्ती कभी नहीं आने देती थी।‎घर में बहुत पैसा नहीं था, ...Read More

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जहाँ से खुद को पाया - 2

PART–2‎‎‎‎दिल्ली की सुबह गाँव की सुबह जैसी नहीं होती। यहाँ सूरज निकलने से पहले ही शोर शुरू हो जाता हॉर्न, भीड़, भागते कदम और बेचैन चेहरे।‎रेलवे स्टेशन के एक कोने में बैठा सयुग आँखें मलते हुए उठा। रात भर नींद और जागने के बीच झूलता रहा था।‎‎ ज़मीन सख़्त थी, शरीर दुख रहा था, लेकिन उससे ज़्यादा दर्द मन में था।‎‎उसने आसपास देखा। कोई अख़बार बिछाकर सो रहा था, कोई अपना बैग सीने से लगाए बैठा था, कोई बिना किसी चिंता के चाय पी रहा था।‎ सब अपनी-अपनी लड़ाइयों में उलझे थे। यहाँ किसी को किसी से फ़र्क नहीं ...Read More