निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा ..

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[मित्रो, ये चर्चाएं कई किस्तों में पूरी होंगी और क्रमशः एक उपन्यास की शक्ल अख्तियार कर लेंगी शायद। आप इन्हें किस्तों में पढ़ते जाने का अवकाश निकालेंगे तो मुझे प्रसन्नता होगी। ये चर्चाएं एक ओर मैं लिखता जाऊँगा, दूसरी तरफ आपके सम्मुख रखता जाऊँगा, इसमें काल का अंतर अथवा विक्षेप भी हो सकता है, जितना अवकाश मिलेगा, उतना ही लेखन हो सकेगा...! आपकी संस्तुति और आपके मंतव्य ही तय करेंगे इस लेखन का भविष्य। बस, आप इसे पढ़ने का श्रम करें, मुझे प्रसन्नता होगी। इस लेखन से बंधु-बांधवों के दीर्घकालिक अनुरोध की पूर्ति भी कर रहा हूँ। --आनंद] प्रथम हस्तक्षेप...

Full Novel

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा ... 1

[मित्रो, ये चर्चाएं कई किस्तों में पूरी होंगी और क्रमशः एक उपन्यास की शक्ल अख्तियार कर लेंगी शायद। आप किस्तों में पढ़ते जाने का अवकाश निकालेंगे तो मुझे प्रसन्नता होगी। ये चर्चाएं एक ओर मैं लिखता जाऊँगा, दूसरी तरफ आपके सम्मुख रखता जाऊँगा, इसमें काल का अंतर अथवा विक्षेप भी हो सकता है, जितना अवकाश मिलेगा, उतना ही लेखन हो सकेगा...! आपकी संस्तुति और आपके मंतव्य ही तय करेंगे इस लेखन का भविष्य। बस, आप इसे पढ़ने का श्रम करें, मुझे प्रसन्नता होगी। इस लेखन से बंधु-बांधवों के दीर्घकालिक अनुरोध की पूर्ति भी कर रहा हूँ। --आनंद] प्रथम हस्तक्षेप... ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 2

मेरे रोने की आवाज़ जैसे ही वातावरण में गूंजी, चाचाजी और उस अज्ञात स्त्री की वार्ता अवरुद्ध हो गई। अपनी चौकी से उठकर मेरे पास आये और पूछने लगे--'क्या हुआ, रो क्यों रहे हो ? ' मेरे मुंह से तो शब्द ही नहीं निकल रहे थे। बोलने की कोशिश की तो हकलाकर रह गया। चाचाजी ने मेरी मशहरी उठाई और मेरे पास बैठ गए, मेरी पीठ सहलाते हुए बार-बार अपना वही प्रश्न दुहराते रहे। थोड़ी देर में मैं संयत हुआ और अंततः मेरे मुंह से बोल फूटे--'मुझे यहां डर लग रहा है।' उन्होंने मेरी बात सुनकर कहा--'ठीक है, डरो ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 3

निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... (३) जब मैंने किशोरावस्था की दहलीज़ लांघी और मूंछ की हलकी-सी रेख चहरे पर उभर तो चाचाजी मेरे प्रश्नों के संक्षिप्त और संतुलित उत्तर देने लगे। उनके पास कथाओं का अंबार था--अनुभूत सत्य से भरी कथाएं--रोमांचक! फिर भी वह आत्माओं से संपर्क के अपने अनुभव बतलाते हुए अपनी वाणी को संयमित रखते। उतना ही बताते, जितना बतलाना उचित समझते। इस विद्या के उनकी गति बहुत थी। उनके निर्देश पर आमंत्रित आत्माएं स्वयं उत्तर दे जाती थीं, पेन्सिल स्वयं खड़ी होकर प्रश्नों के उत्तर कागज़ पर लिख जाती, कोकाकोला के टिन के ढक्कन समस्याओं के समाधान ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 4

निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... (४) पूज्य पिताजी ने अपने एक लेख 'मरणोत्तर जीवन' में लिखा है--"मनुष्य-शरीर में आत्मा की सभी स्वीकार करते हैं। शरीर मरणशील है, आत्मा अमर। मृत्यु के बाद शरीर को नष्ट होता हुआ--जलाकर, गाड़कर या अपचय के द्वारा--सभी देखते हैं, लेकिन आत्मा का क्या होता है? वह कहाँ जाती है? क्या करती है? शरीर के नष्ट होने के बाद उसका अधिवास कहाँ होता है? क्या इस जगत से उसका सम्बन्ध बना रहता है? क्या वह व्यक्ति-विशेष का ही प्रतिनिधित्व करती है? ये और इससे सम्बद्ध अन्य अनेक प्रश्न स्वभावतः मानव-मन में उठते रहते हैं। लेकिन आज ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम पिपासा - 5

['यह रूहों की सैरगाह है...!'] दो वर्षों के कानपुर प्रवास के वे दिन मौज-मस्ती से भरे दिन थे। दिन-भर और शाम की मटरगश्तियां, यारबाशियाँ। कुछ दिनों बाद मैंने भी एक साइकिल का प्रबंध कर लिया था। ध्रुवेंद्र के साथ मैं शहर-भर के चक्कर लगा आता। आर्य नगर हमारा मुख्य अड्डा बन गया था, जहां शाही के कई पुराने मित्र भी थे। उनसे मेरे भी मैत्री-सम्बन्ध बन गए थे। कभी-कभी गंगा-किनारे भैरों (भैरव)) घाट तक मैं अकेला चला जाता, जो तिलक नगर के आगे पड़ता था। जाने क्यों, उन दिनों श्मशान में जलती चिताएं मुझे आकर्षित करती थीं और गंगा ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम पिपासा - 6

[निष्कम्प दीपक जलता रहा रात भर.... ] दूसरे दिन का दफ्तर का वक़्त मुश्किल से कटा। इतने-इतने प्रश्न, शंकाएं, कि बस, राम कहिये ! मैं लगातार यही सोचता रहा कि क्या आज रात मेरी माता से सचमुच बातें हो सकेंगी? क्या वह औघड़ इतना सक्षम है ? माता से बातें हो सकेंगी, यह विचार ही रोमांचकारी था। माता को गुज़रे सात वर्ष हो चुके थे--४ दिसंबर १९६८ को ब्रह्ममुहूर्त्त में, किसी से बिना एक शब्द कहे, उन्होंने शरीर त्याग दिया था और पूरा परिवार अवसन्न रह गया था। बिहार सरकार के शिक्षा विभाग में उच्च-पदस्थ मेरी माँ पूर्णतः स्वस्थ-प्रकृतिस्थ ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 7

बड़े भाग पाया गुर-भेद... 'रात गयी और बात गयी'-जैसा मेरे साथ कुछ भी नहीं हुआ। रात तो बेशक गयी, ठहरी रही--अपनी अपनी पूरी हठधर्मिता के साथ। हमारी संकल्पना पूरी तरह साकार न हो, तस्वीर वैसी न बने जैसी हम चाहते हों, तो बेचैनी होती है। यही बेचैनी मुझे भी विचलित कर रही थी। जितने प्रश्न पहले मन में उठ रहे थे, वे द्विगुणित हो गए। मैंने सोचा था, औघड़ बाबा अब कुछ ऐसा अद्भुत-अलौकिक करेंगे, जिससे मेरी माता, धुंधली छाया बनकर, झीने आवरण में ही सही, स्वयं उपस्थित होंगी अथवा मुझे उनका मंद स्वर सुनने को मिलेगा, लेकिन वैसा ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 8

जब सुनी गई पहली पुकार... उस शाम बाबा ने पराजगत के विषय में जो कुछ बतलाया, वह गूढ़ ज्ञान करनेवाला था। वह तो एक सम्पूर्ण लोक ही है, जिसके कई तल (layer) हैं, कर्मानुसार शरीर-मुक्त आत्माएं विभिन्न तलों में प्रतिष्ठित होती हैं और अपना समय वहाँ व्यतीत करती हैं। परमशांत, आप्तकाम, जीवन्मुक्त आत्माएं समस्त तलों के पार चली जाती हैं अर्थात जन्म-मृत्यु चक्र से छूट जाती हैं। ऐसी आत्माएं कभी संपर्क में नहीं आतीं। उन्हें पुकारना व्यर्थ है। अपमृत्यु को प्राप्त आत्माएं सबसे निचले तल पर भटकती रहती हैं। उनमें अत्यधिक विचलन होता है, वे जगत-संपर्क के लिए किसी ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 9

पिताजी की वर्जना और चालीस दूकान की आत्मा... 'कहेगा कौन-सा अलफ़ाज़ उस रात की दास्ताँ, माँ, जब तुम मैं था और आँख के आंसू मेरे...!' उस रात की वार्ता में जितना वक़्त लगा, माँ से उतनी बातें नहीं हुईं। कारण यह कि ग्लास की गति बोर्ड पर बहुत मंथर थी। मेरे एक प्रश्न के उत्तर के वाक्य बनने में खासा वक़्त लग रहा था। लेकिन इतना तय था कि बात माता से ही हो रही थी और वह बहुत महत्त्व की थी। महत्त्व की इसलिए कि माँ उस दिन मेरे प्रश्न के उत्तर में नहीं, बल्कि स्वयं ऐसे वाकये ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 10

वह डाली तो अभी हरी थी....10 सप्ताहांत समीप आ गया था और मैं तीन दिनों के रतजगे और लेखा-विभाग दिन के वक़्त आँखफोड़ अंक-व्यापार से क्लांत हो गया था। शनिवार की शाम की आतुर प्रतीक्षा थी, वह आ पहुँची। मैंने अपना बुद्धिजीवी झोला उठाया, उसमें सिल्क की धोती और अखबार की तह में लपेट कर शीशे की छोटी गिलासिया रखी। बोर्ड आकार में झोले से बड़ा निकला, उसे भी एक पेपर में पैक किया और साइकिल के करियर में दबा दिया। यथापूर्व मुझे श्रीलेखा और मधुलेखा दीदी के घर जाना था। मन में उत्साह था, चाहता था कि शीघ्र ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 11

कानपुर-प्रवास के जोड़ीदार--शाही और ईश्वर आगे की कथा कहने के लिए थोड़ी भूमिका अपेक्षित है। लेकिन आप यह न मैं कोई अवांतर कथा कहने लगा हूँ। जिनका उल्लेख कर रहा हूँ, वे सभी आगे चलकर इस परलोक चर्चा के महत्वपूर्ण पात्र सिद्ध होंगे।… कानपुर-प्रवास में जीवन एक ढर्रे पर चल पड़ा था। सप्ताह के पांच दिन दफ्तर में, काम की भीड़-भाड़ में और मित्रों के सान्निध्य में व्यतीत हो जाते तथा दो दिन श्रीलेखा-मधुलेखा दीदी के पास। बैचलर क्वार्टर तो लघु भारत ही था, वहाँ देश के हर प्रदेश के प्रतिनिधि आ बसे थे। वे टोलियों में बँटे हुए ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 12

हमदम मेरे, जो बात तुमको चहिये थी खुद बतानी, वह हवा का एक कतरा था, कह गया सारी कहानी।... पाँच-छह महीने बाद मैं, शाही और ईश्वर सर्वत्र एक साथ दिखने लगे। ईश्वर ने कानपुर की 'हरी कॉलोनी' (Green colony ) के एक क्वार्टर में अपना आशियाना बनाया था, जो हमारे ठिकाने से बहुत दूर नहीं था। उनके पास एक अच्छा पाकशास्त्री भी था, जो बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाता था। आये दिन उनके गाँव से कोई-न-कोई व्यक्ति स्वादिष्ट व्यंजन लिए चला आता और ईश्वर अपने घर हमें आमंत्रित करते। मेस के उबाऊ एकरस भोजन से पके हुए हम दोनों उत्साह ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 13

काश, समुद्र का जल पीने लायक़ होता...ईश्वर सामान्य-जन से भिन्न होते हैं। भिन्न होते हैं, तभी तो ईश्वर होते मेरे मित्र ईश्वर भी उस कच्ची उम्र से ही थोड़े भिन्न थे। उन्होंने कोई व्यसन नहीं पाल रखा था, पूजा-पाठी थे, कंठी-माला धारण करते थे और मेरे-शाही के धूमपान के व्यसन तथा कभी-कभी पान-तम्बाकू-भक्षण की भर्त्सना करते थे। मुझे लगता है, आरम्भ से ही उनका झुकाव भगवद्भक्ति की ओर था। बाद में सुनने में आया था कि उन्होंने इस दिशा में बहुत गति भी पायी थी।खैर, उस रात ईश्वर के घर परा-संपर्क की सफलता से कई लाभ हुए। सबसे बड़ा ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 14

इज़हारे ग़म उसे आता न था...सिर्फ़ चालीस दुकान की आत्मा ने ही नहीं, अनेक आत्माओं ने मुझसे कहा था वे अपना नाम भूल चुकी हैं। ऐसी आत्माएं अपनी पहचान के लिए एक कूट संख्या (Code number) बतलाती थीं। इन अनेक संख्याओं को स्मरण में रखना तो कठिन था। लिहाज़ा, मैंने एक डायरी में इन संख्याओं को दर्ज करना शुरू किया, उनके किंचित् विवरण तथा महत्वपूर्ण वक्तव्यों के साथ, ताकि उनके पुनरागमन पर तत्काल उन्हें पहचान सकूँ। मेरी बाद की परलोक-चर्चाओं के लिए वह दस्तावेज़ बड़े महत्त्व का सिद्ध हुआ। ...इन सारे कार्य-व्यापारों में मेरी रातों की नींद दुश्वार हो ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 15

क्या ख़ता थी मेरी, मैं कैसी ख़ता कर गया,वो मेरा ही पता था, मुझे लापता कर गया !दूसरे दिन मैं देर से जागा। अमूमन सुबह की चाय मैं ही बनाता था और 'बेड टी' लेते हुए शाही हर सुबह उसकी पहली चुस्की के साथ एक ही वाक्य बोलते थे--'ओह, आँख खुली... । ' लेकिन उस दिन शाही ने आठ बजे, सुबह की चाय बनायी और मुझे जगाने की कोशिश की। मैंने करवट बदलकर उनसे कहा--यहाँ रखो न कप, उठता हूँ भाई !' शाही कप रखकर स्नान-ध्यान करने में लग गए और मैं सोता रहा। सुबह ९ बजे नींद खुली, ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 16

क्या बने बात, जो बात बनाये न बने...दफ्तर की छुट्टी के बाद ईश्वर भी 'बाबा भूतनाथ' के कमरे पर हम तीनों मित्रों के बीच आज की घटना पर बातें होने लगीं। दोनों एकमत थे कि इस मामले में मैं और अधिक न पडूँ। मैं तो इस आसमान में और उड़ना चाहता था, लेकिन मित्र-बंधु थे कि हाथ खींच लेने की सलाह दे रहे थे। गंभीर मनोमंथन और विमर्श होता रहा। शाही का कहना था कि 'तुम्हारी सूचना के आधार पर अगर दिवंगता के पिता ने पुलिस केस कर दिया तो बड़ी परेशानी हो जायेगी। तुम्हारी हस्तलिखित चिट्ठी ही साक्ष्य बन जाएगी और पुलिस की पूछताछ के दायरे ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 17

रहीं सालती मन की गाँठें...कानपुर लौटकर जीवन सामन्य गति से चल पड़ा था। बैचलर क्वार्टर की गतिविधि भी सामान्य किन्तु असामान्य कुछ प्रतीत होता था, तो वह था लक्ष्मीनारायण ओज़ाजी का व्यवहार। जब से लौटा था, मैं लक्ष्य कर रहा था कि वह मुझसे ही बचकर निकलने लगे थे। अब तक तो मैं ही उनसे कन्नी काट जाता था, अब वह काटने लगे थे। यह मुझे विचित्र-सा लगता। वह मुझसे बचकर निकल जाते, सम्यक् दूरी बनाकर रहते, बातें करते तो जल्दी-से-जल्दी खिसक जाने की फ़िराक़ में रहते। मुझे आश्चर्य हुआ तो एक दिन मैंने शाही से पूछा--'देखता हूँ कि ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 18

जब मूर्तिमान अवसाद आँसुओं से धुल गया था... २०-२५ दिनों से प्लैन्चेट का बोर्ड उदास पड़ा था। मैं भी की इच्छा-पूर्ति में चाहे-अनचाहे उनका साथ दे रहा था। लेकिन कई बार मन बेचैन हो उठता था, लगता था एक समूची दुनिया के व्यग्र लोग मेरी प्रतीक्षा में होंगे और मैं अपने द्वार बंद किये बैठा हूँ। ख़ास तौर से चालीस दुकानवाली की फिक्र मुझे हलकान करती। मैं जानता था, वह मुझसे बहुत नाख़ुश होगी और बोर्ड के बिछते ही आ धमकेगी और खूब झगड़ेगी। कभी-कभी रात में सोते हुए अचानक पूरे शरीर में सिहरन होती, कभी लगता कोई मुझे झकझोर ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 19

बाद मुद्दत के वह पुरानी रात लौटी... दफ़्तर में दूसरा दिन धूसर-सा बीता। अनिद्रा का प्रभाव तो था ही, रात की बातों का अवसाद भी अंतरात्मा पर छाया था। उस बालक की आत्मा ने जो कुछ कहा/बताया था, उसका बहुलांश तो मेरे लिए भी अजाना था। शैलेन्द्र ने मुझसे सिर्फ घटना का उल्लेख किया था और अपनी त्रासद आंतरिक पीड़ा की बात बतायी थी। आत्मा ने तो पूरी घटना का सत्य सबके सामने उजागर कर दिया था, उसने अपने पुनर्जन्म की बात और शरीर छोड़ने के बाद कुछ बोलने की चेष्टा की बात कहकर मुझे भी आश्चर्य में डाल दिया ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा...- 20

परालोक एक अँधेरी सुरंग की तरह है...मुझे सुदूर अतीत में फिर लौटना होगा।...बहुत दिनों से मेरे कमरे में परलोक-चर्चाएँ हुई थीं, लेकिन परिसर में उनकी चर्चाओं का बाज़ार गर्म था। ज्यादातर लोग मेरे पीठ पीछे इनकी चर्चाएँ करते थे। जो ज्यादा निकट थे, वे तो मित्रता में अधिकारपूर्वक मुझे 'बाबा भूतनाथ' भी पुकार लेते। मुझ पर इस पुकार का कोई प्रभाव न होता। इसे मैं उनकी प्रीति का पुरस्कार ही मानता था, लेकिन शाही को यह सम्बोधन नागवार गुज़रता। वह प्रायः मुझसे कहते, 'अब यह सब बंद करो, नहीं तो पूरा दफ़्तर और मिल के लोग तुम्हें 'भूतनाथ ही ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 21

अजब था हाल दिल का, गज़ब थी दोस्ती उसकी...सन १९७० में आचार्य रजनीश पटना पधारे थे। तब तक वे ही थे, 'भगवान्' या 'ओशो' नहीं हुए थे। उन दिनों आकाशवाणी, पटना के हिंदी प्रोड्यूसर पिताजी थे। उन्होंने हिन्दी वार्ता विभाग के लिए आचार्य के 'मुक्त-चिंतनों' के कई अंकों का ध्वन्यांकन किया था और घर आकर उनकी वक्तृता की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। तभी पता चला कि पटना के लेडी इंस्टीफिंसन हॉल में तीन दिनों तक शाम के वक़्त आचार्यश्री के भाषण होंगे। मैंने अपने एक अभिन्न मित्र के साथ घर से ८ किलोमीटर दूर जाकर तीनों दिन उनके भाषण ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 22

'मैं भयावह काली बिल्ली-सी नहीं,भासमान उज्ज्वल छाया-सी हूँ--हवा में तरंगित'...पिछले डेढ़-दो महीने की वार्ता में चालीस दुकानवाली आत्मा ने टुकड़ों में मुझे अपनी पूरी जीवन-कथा सुनायी थी। उसकी कथा में जीवन के सारे रंग थे--उत्साह-उमंग के, सुख के, दुःख के और गहरे अवसाद के रंग। खून के जमे हुए थक्कों-से स्याह रंग बहुत व्यथित करनेवाले रंग थे, जो आँखों में आंसू बनकर उतर जाना चाहते थे। मात्र तेईस-चौबीस वर्ष के जीवन में उसने बहुत कुछ सहा-भोगा था। मुझे कई बार लगता कि वह अपनी कहानी सुनाने के लिए ही मुझ से जुड़ी है, लेकिन शायद मैं बहुत सही नहीं ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 23

"चालीस दुकानवाली आत्मा का 'विशुद्ध' प्रेम"...जिन दिनों चालीस दुकानवाली आत्मा के साथ मेरी प्रगाढ़ प्रिय-वार्ता चल रही थी, उन्हीं की बात है। स्वदेशी में अनियमित वेतन-भुगतान के कारण मजदूरों में असंतोष बढ़ता जा रहा था। मिल-गेट पर आये दिन उनका धरना-प्रदर्शन होता था और मजदूर-नेताओं के गर्मजोशी से भरे भाषण होते थे। लाल झंडे-बैनरों तले माहौल गर्म होता जा रहा था। सांकेतिक हड़ताल की अनपेक्षित छुट्टियाँ भी हमें मिल जाती थीं और हम उनका बड़ा आनंद उठाते थे। शाही, मेरी और ईश्वर की दिन-भर की गोष्ठियां लगतीं । मज़े का दिन गुज़रता और रातें तो परा-जगत् में विचरण की ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 24

जब कृतज्ञता अश्रु बन छलकी थी...24पितामही और माता के बाद जीवन के चौबीसवें वसंत को लांघते ही पहली बार ने मुझसे कहा था--'मैं भी तो तुम्हें प्रेम करती हूँ'--चाहे यह वाक्य पराजगत् से आयी चालीस दुकानवाली आत्मा ने ही क्यों न कहा हो। एक अबूझे रोमांच से भरा हुआ था मैं.… लेकिन यह सुरूर यथार्थ पर दृष्टिपात करते ही उतर जाता था, फिर सत्य से विमुख होते ही इस वाक्य के मर्म का ज्वर मुझ पर चढ़ने लगता था। चालीस दुकानवाली से घनिष्ठ रूप से जुड़ने का मेरा उद्देश्य सिर्फ इतना था कि मैं पराजगत् के बारे में अधिकाधिक ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 25

'ज़मीं पर कभी उतरो तो कोई बात बने ...!'अगली वार्ता में मेरी इस जिज्ञासा पर कि तुम्हें कैसे ज्ञात कि वह मज़दूर अपने गाँव चला गया था और वहीं उसने यथानिश्चय गंगा के किनारे पूजन किया था, चालीस दुकानवाली आत्मा ने मुझसे कहा था--"हमारी गति का तुम्हें अनुमान नहीं है, मन की गति से भी क्षिप्र हैं हम! हम चाहें तो क्षण-भर में समुद्र लांघ जाएँ। तुम्हारे पलक झपकाने भर के अवकाश में विशाल पहाड़ की ऊँचाई नाप लें। उस मज़दूर का गाँव तो मेरे लिए एक हाथ की दूरी पर था। इच्छा मात्र से मैं पहुँच गयी थी ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 26

'पांच-पच्चीस का विचित्र चक्र...' अभी-अभी परलोक चर्चाओं की पच्चीसवीं कड़ी समाप्त हुई है। जब कॉलेज में था, एक विदेशी के उपन्यास का हिन्दी तर्जुमाँ 'पच्चीसवाँ घण्टा' पढ़ा था। उसकी घंटा-ध्वनि की गूँज आज तक श्रवण-रंध्रों में गूंजती है कभी-कभी.…! पिछली पच्चीसवीं क़िस्त पर आकर ठहर गया हूँ और न जाने क्यों 'पच्चीसवें घंटे' की याद आ गई है, जबकि दोनों में कोई साम्य नहीं है--न कथा का, न परिवेश का और न ताने-बाने का। पच्चीसवीं क़िस्त पर रुककर याद करता हूँ कि पाँच दिन की प्रतीक्षा मुझे भी असह्य होती जा रही थी। दिन व्यतीत होने का नाम नहीं ले ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 27

'बस, मैं तेरा अन्वेषक था, जनम-जनम का… 'दिन हांफते-दौड़ते थककर शाम की छाया में जा बैठा। हम दफ़्तर से अपने-अपने पैर घसीटते हुए। शाही ने चाय बनायी, हम दोनों ने पी, लेकिन कोई किसी से कुछ नहीं बोला। वह अजीब उदास शाम थी। क्लब जाने का मन नहीं हुआ। शाही जॉगिंग पर गये। मैं कभी कमरे में, कभी आहाते में अपनी उलझी मनःस्थिति लिए चहलकदमी करता रहा। फिर शाम भी रात के आगोश में सिमटने लगी। कमरे की कुण्डी लगाकर मैं सामने की सड़क पर आ गया। मैं अवचेतन में कहीं एक पुकार सुन रहा था। मंद गति से ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 28

'जाने कौन साथ सफ़र करता है…!'उस रात शाही के साथ किसी तरह स्वदेशी कॉलोनी लौट तो आया, लेकिन मैं क्लांत था। रास्ते में शाही ने मुझसे कुछ नहीं पूछा। किसी कटे वृक्ष की तरह मैं शय्या पर जा गिरा और शायद अत्यधिक अशक्तता के कारण जल्दी ही सो भी गया। वह विचित्र बेहोशी की नींद थी।... दूसरे दिन फ्रेश होने के बाद जब शाही के साथ चाय-नाश्ते के लिए बैठा, तो शाही ने तेरहवीं सीढ़ी पर पिछली रात क्या हुआ था, यह जानना चाहा। मैंने विस्तार से उन्हें वह सब बताया, जो घटित हुआ था।सारा विवरण सुनकर वह गंभीर हो गए ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 29

उसका ख़याल दिल से कभी जाता न था…बात बहुत पुरानी है--१९३४ की। पितामह (साहित्याचार्य पं. चंद्रशेखर शास्त्री) द्वारा अनूदित के प्रचार-प्रसार के लिए पिताजी भागलपुर गए हुए थे। वहाँ के किसी गेस्ट हाउस में किराए के एक कमरे में दुतल्ले पर ठहरे थे। अचानक और अकारण पितामह ने तार भेजकर पिताजी को तत्काल घर (इलाहाबाद) लौट आने का आदेश दिया। जिस दिन पिताजी को वह तार मिला, उसी रात की गाड़ी से पिताजी ने इलाहाबाद के लिए प्रस्थान किया और दूसरे दिन इलाहाबाद पहुंचे। स्टेशन से बाहर निकलते हुए उन्होंने एक अख़बार खरीद लिया और इक्के में बैठकर दारागंज के ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 30

फिर खुलेंगे बंद द्वार, क्या लौटोगे तुम एक बार ?…सन '७७ के दिन यूँ ही बदहवास से बीतते रहे। महीनों की लम्बी अवधि गुज़र गई और परा-जगत् से संपर्क की कोई सूरत नहीं निकली।दिल्ली-प्रवास में रविवार की सुबह साहित्यिक गोष्ठियों की गुनगुनी धूप लेकर आती, जब नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन शास्त्रीजी पिताजी से मिलने मेरे घर पधारते। यह त्रिमूर्ति उसी कॉलोनी में निवास करती थी। उनकी गोष्ठियां दिल्ली के निरानंद जीवन में आनंद की एक ठंढी बयार-सी होतीं। कभी-कभी दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ प्राध्यापक भी आते और बैठकें लम्बी खिंच जाती। कविताएं होतीं, गंभीर विमर्श होते और गप्पें होतीं। ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 31

जो तुम आ जाते एक बार !…प्राध्यापक महोदय के बुज़ुर्ग मित्र का नाम तो अब स्मृति से पूरी तरह गया है, लेकिन पाठ और उल्लेख की सुविधा के लिए मान लीजिये कि उनका नाम शर्माजी था। मैंने दफ्तर से दोपहर में शर्माजी को फोन किया। मेरा फ़ोन पाकर वह प्रसन्न हो उठे। खिलकर बोले--'आनंदजी! मैं जानता था, आप मेरी मदद जरूर करेंगे ?' मेरे फोन को ही उन्होंने मेरी स्वीकृति मान लिया था और बहुमुख हो उठे थे, कहने लगे--'आप जब कहें, जहाँ कहें, मैं वहीं आ जाता हूँ। आप चाहें तो मैं अपने निवास पर ही आपको अपनी ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 32

उस रात वह मेरे पास थीं…उस रात की परा-वार्ता के बाद शर्माजी तो अलभ्य हो गए! मैं चिंता में रहा कि आख़िर हुआ क्या! आत्मा से मिली सूचनाएँ सत्य सिद्ध हुईं या....? पंद्रह दिनों की प्रतीक्षा के बाद मैंने फ़ोन किया तो किसी ने फ़ोन उठाया नहीं। प्रतीक्षा और व्यग्रता बढ़ती गई। एक दिन पिताजी ने भी जिज्ञासा की--'भई, तुम्हारे शर्माजी तो गायब ही हो गए। उन्होंने यह भी बताना ज़रूरी नहीं समझा कि उनकी समस्या सुलझी कि नहीं! बातचीत से तो भले आदमी लगे थे, उन्हें स्वयं तुम्हें सारी बात बतानी चाहिए थी।'मैंने पिताजी से कहा कि 'मैंने ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 33

अन्तःपुर के वातायन से…ज़िन्दगी एक वेगवान् नदी-सी है, जो टेढ़ी-मेढ़ी राह चलती है और हर पल रंग बदलती रहती उसे कभी सीधी-सपाट सड़क नहीं मिलती। ज़िन्दगी में छोटी राहें (short-cuts) नहीं होतीं।... नवम्बर १९७८ में मेरा विवाह हुआ था और मेरे जीवन की दिशा बदल गयी थी। राग दूसरी डाल से बँधने लगा था। एक वर्ष की अवधि भी पूरी नहीं हुई थी कि पांच वर्षों से सेवित दिल्ली १९७९ में मुझे छोड़नी पड़ी। जीवन में परिवर्तनों का दौर शुरू हुआ। कई पड़ावों पर रुकती-ठहरती, चक्रवातों से जूझती और नौकरियाँ बदलती ज़िन्दगी ज्येष्ठ और कनिष्ठ कन्या की उपलब्धि के साथ ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 34

चेतना के द्वार पर दस्तक देती रही चलीस दुकानवाली... वक़्त जिस तेजी से बीत रहा था, उतनी ही तीव्रता उस अनजानी ऊर्जा-शक्ति का हस्तक्षेप भी बढ़ता जा रहा था। मेरी व्यग्रता और चिंता भी बढ़ने लगी थी! मन हर क्षण इसी फिक्र और उधेड़बुन में लगा रहता कि वह कौन है, जो यह उत्पात कर रहा है। चालीस दुकानवाली तो वर्षों से गायब थी और कानपुर छोड़ने के बाद, मेरी चाहना के बावज़ूद, उसने कभी मेरी सुधि नहीं ली थी। वह तो हमेशा मेरी हित-चिंता में लगी रहती थी, कभी किसी प्रकार का कष्ट मुझे नहीं दिया था उसने। तब ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 35

वह आ पहुँची फिर एक बार…]श्रीमतीजी का हाल यह था कि वह अब मुझसे ही परहेज करने (डरने) लगी यह मेरे लिए असहनीय स्थिति थी। वह प्रायः मुझसे पूछतीं--'क्यों, आप अकेले ही हैं न? कोई आपके साथ, आपके पास, आप में तो नहीं ?' उनके ये प्रश्न मुझे निरीह बना देते ! लेकिन यह सब मुझे सहना था--उनकी अति-चिंता भी, उनका तिरस्कार भी। और, मेरे दुर्भाग्य से और दैव-योग से उन्हें सहना था मुझ निर्दोष, अकिंचन का दिया हुआ अकूत भय...! सच तो यह था कि तब इतना धीरोदात्त मैं भी कहाँ था?...जीवन में इसी तरह का हस्तक्षेप और ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 36

'अलविदा, मेरे अच्छे दोस्त!'…लेकिन गहरे ध्यान में जाने अथवा किसी को पुकारने का मुझे अवसर ही नहीं मिला। मैंने ही गिलास हाथ में उठाया, शरीर में जाना-पहचाना कम्पन हुआ, जो इस बात का संकेत था कि कोई आत्मा बिना बुलाये ही आ पहुंची है। मैंने शीघ्रता से संपर्क साधा और पूछा--'आप कौन हैं? अपना परिचय दें।'आत्मा ने अपना परिचय पहले हंसकर दिया, फिर बोली--'परिचय क्या पूछते हो ? मैं हूँ चालीस...!'उसकी उपस्थिति की जानकारी से मेरे पूरे बदन में झुरझुरी-सी हुई। रोमांचित होकर मैंने कहा--'अरे, इतने दिनों बाद तुम्हें मेरी याद आई है?'--'हुश्श... ! याद तो उसकी आती है, ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 37

'फिर आ पहुंचे दो श्वेतवस्त्रधारी देवदूत'…मित्र के घर देर से जागा और एक कप चाय पीकर दूसरे मित्र के गया। वह मुझे देखते ही शर्मसार हुए, कहने लगे--'कल श्रीमतीजी ने बहुत बखेड़ा कर दिया था। बहुत दुखी हूँ यार कि कल रात मैं आ नहीं सका ! ये बताओ, संपर्क हुआ क्या? समाधान का कोई सूत्र तुम्हें मिला क्या?'मैं उन्हें क्या बताता, बस इतना भर कहा कि 'तुमने जिनका आह्वान करने को कहा था, वे तो आये नहीं; लेकिन मेरी पूर्वपरिचित एक आत्मा ने मुझे बताया है कि तुम्हारी पत्नी को किसी प्रकार की प्रेत-बाधा नहीं है। उनका बहुत ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 38

'विषाद की छाया में, जब सच हुआ स्वप्नादेश'…पिताजी की शारीरिक अक्षमता बढ़ती जा रही थी, हमारा सारा ध्यान उन्हीं परिचर्या में लगा हुआ था, दो श्वेतवत्रधारियों का चिंतन करने का अवकाश भी कहाँ था? पिताजी की शोचनीय दशा की ख़बर पाकर स्थानीय और दूर-दराज़ के परिजन घर आने लगे थे। मेरी सासुमाँ और श्वसुर मध्यप्रदेश से आये थे। घर भरा हुआ था। पिताजी आगंतुकों को पूरे आत्मविश्श्वास से बताते कि साधना की नियुक्ति केंद्रीय विद्यालय में हो गई है और आगंतुक साधनाजी को बधाइयाँ देने उनके पास पहुँच जाते। साधनाजी क्षुब्ध और निरीह हो जातीं; उन्हें कहतीं कि बाबूजी ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 39

'स्मृतियों को समर्पित थे वे अश्रु-कण'…१६ नवम्बर १९९५। संध्या रात्रि का परिधान पहनने लगी थी। पिताजी कई घण्टों से थे और खुली आँखों से कमरे से आते-जाते, बैठे-बोलते हमलोगों को चुपचाप देख रहे थे--निश्चेष्ट! शारीरिक यंत्रणाओं और अक्षमताओं ने उन्हें अवश कर दिया था। रात के आठ बजे थे, तभी कथा-सम्राट प्रेमचंदजी के कनिष्ठ सुपुत्र अमृत रायजी सपत्नीक पधारे। वे किसी प्रयोजन से पटना आये थे और मित्रों से यह जानकार कि पिताजी सांघातिक रूप से बीमार हैं, उन्हें देखने चले आये थे। अमृतजी पिताजी के सिरहाने कुर्सी पर बैठे और उनकी गृहलक्ष्मी सुधाजी (सुभद्रा कुमारी चौहान की सुपुत्री) ...Read More

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 40 - अंतिम भाग

'बंद आँखों का वह चाक्षुष-दर्शन'…पिताजी से पूछे जानेवाले प्रश्नों की फेहरिस्त लम्बी होती जा रही थी। उनसे संपर्क की बार-बार मन में उठती थी, जिसे मैं मन में ही दबा देता था। मेरी हिम्मत ही नहीं होती थी कि प्लेंचेट बोर्ड बिछाकर बुलाऊँ उन्हें ! डर था कि कहीं बोर्ड पर ही बुरी तरह डाँट न खानी पड़े। पिताजी को गुज़रे सवा साल बीत गए थे, इस बीच उनको स्वप्न में कई बार देखा था, बातें की थीं, विलाप किया था; किन्तु प्लेंचेट पर बुलाकर बात करने की कभी हिम्मत नहीं हुई।एक रात गहरी नींद सोया और विचित्र स्वप्न-दर्शन ...Read More