पलक हर सुबह आईने के सामने खड़ी होती और अपने चेहरे को घंटो ध्यान से देखती उसे सब कुछ ठीक लगता—आँखें, होंठ, माथे की शिकन।फिर भी कुछ तो था जो उसे हर बार अधूरा छोड़ देता था वह आईने से नहीं, खुद से नज़र चुराती थी।लोग उससे कहते थे,“तुम तो बहुत मज़बूत हो बेटा।”उसे समझ नहीं आता था कि मज़बूती कब उसकी आदत बन गई या उसका वहम या फिर कब उसकी मजबूरी।वह जानती थी—कुछ टूटना आवाज़ नहीं करता और उसके अंदर ही अंदर बहुत कुछ टूट चुका था।जीवन मे कुछ हादसे शरीर पर नहीं, चेतना पर निशान छोड़ते हैं