वो इश्क जो अधूरा था - भाग 16

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संदूक खोलते ही, हवेली की दीवारों से एक चीख निकली। रुख़साना की नहीं… अन्वेषा की।वो अब उस कक्ष के भीतर कहीं मौजूद थी—नज़र नहीं आ रही थी, पर उसकी दर्दभरी आवाज़ गूंज रही थी।वो आवाज अन्वेषा की थी "अपूर्व...!" "मैं... बदल रही हूँ..."संदूक के अंदर था—एक खून से सना दुपट्टामिट्टी में लिपटी डायरीऔर एक आईना, जो टूटा हुआ था—लेकिन उसमें रुख़साना नहीं... अन्वेषा की झलक दिख रही थी।अपूर्व ने आईना उठाया। आईने में उसकी अपनी परछाईं नहीं थी। केवल अन्वेषा का चेहरा... और पीछे कोई और... एक बूढी महिला... उसकी माँ।*अपूर्व धीमी आवाज में बोला - “माँ?” पर उसकी माँ की आँखें वैसी नहीं थीं। वो आँखें जल रही थीं। और