उम्मादे के जाने के बाद जोधपुर का किला भीतर से जैसे खोखला हो गया था।जहाँ पहले रानियों की उपस्थिति से हवेली में हल्की-सी हलचल रहती थी, अब वहाँ सन्नाटा और अकेली भारमाली थी।वह अक्सर महल की छत पर खड़ी होकर दूर देखने लगती—रेत के पार कहीं उसका अपना जैसलमेर था।और एक दिन उसने वही कहा जो इतने समय से दिल में पनप रहा था—“मेरा जइसेलमेर जाने का मन है… पर अब कैसे जाऊँ? मेरे पीछे उठी हवाओं ने मेरा रास्ता भी बदनाम कर दिया।”मालदेव कुछ पल उसे देखता रहा।उसकी आँखों में शिकायत थी, दूरी थी… और एक हल्का-सा कसाव भी।आखिर