सविता के शब्द अब भी हवेली की दीवारों में अटके हुए थे —“देवयानी वहीं अब भी साँस ले रही है…”अर्जुन मेहरा तहख़ाने से ऊपर आया, लेकिन उसके कदम भारी थे।जैसे सच उसके जूतों से चिपक कर ऊपर आया हो।बाहर का आसमान काला था।और हवेली के बरामदे में सिर्फ़ दो चीज़ें बची थीं —सन्नाटा और किसी अदृश्य औरत की परछाई।अर्जुन और सावंत ने कार की तरफ बढ़ना शुरू ही किया था कि अचानक—ट्रिंग… ट्रिंग…अर्जुन का फ़ोन बजा।रात के 3:12 AM थे।इस वक़्त किसी का कॉल आना अच्छा इशारा नहीं था।> अर्जुन: “हेलो?”कॉलर (घबराई हुई आवाज़): “सर… सविता मैडम की बेटी आशा…