ख़ज़ाने का नक्शा - अध्याय 2

अध्याय 2: दरगाह-ए-नूर का पहला सुराग़(जहाँ रहस्य, रूह और इम्तिहान एक-दूसरे से टकराते हैं)सुबह का वक़्त था। लखनऊ की हवाओं में हल्की सी ठंडक थी, और पुरानी गलियों में इत्र और मिट्टी की महक घुली हुई थी। रैयान और ज़ेहरा हवेली से निकले — उनके पास वही पुराना नक्शा था, जिस पर सबसे ऊपर लिखा था: “दरगाह-ए-नूर”ज़ेहरा ने कहा, “रैयान, ये दरगाह शहर के बाहर है… लोग कहते हैं वहाँ अब कोई नहीं जाता।” रैयान ने मुस्कुराकर जवाब दिया,“कभी-कभी जहाँ रौशनी कम होती है, वहीं सबसे गहरा नूर छिपा होता है।” दरगाह का मंज़रसूरज ढलने को था जब वो वहाँ