(“कभी-कभी शादी प्यार से नहीं, वक़्त के डर से हो जाती है…”)साल गुज़रते गए।आरती अब पच्चीस की नहीं रही।ज़िंदगी जैसे धीरे-धीरे उसे सिखा चुकी थी कि सपने सिर्फ़ देखने की चीज़ नहीं — कुछ सपनों को बस अपने अंदर चुपचाप दफना देना पड़ता है।घर में अब शांति नहीं थी, बस बीमारी और चिंता थी।माँ की तबियत दिन-ब-दिन गिर रही थी।दवाइयाँ चलती रहीं, पर उनके चेहरे पर एक ही बात साफ़ थी —“मैं अपनी बेटी को अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहती।”आरती माँ को समझाती, “माँ, मैं ठीक हूँ… तुम्हें कुछ नहीं होगा।”पर माँ हर बार वही जवाब देतीं,“बेटा, मैं अब ठीक