प्रेम की राख से उठती रौशनी सुबह की धूप हवेली के टूटे झरोखों से छनकर भीतर आ रही थी। रात की लाल आभा अब मद्धम पड़ चुकी थी, पर हवा में अब भी एक गर्माहट थी — जैसे किसी ने अभी-अभी हवेली के दिल में नया जीवन फूँका हो। अनाया नींद से जागी तो उसके हाथों में वही दीपक था — सुनहरी-काली लौ अब शांत थी, पर बुझी नहीं। उसने उसे अपनी हथेली पर रखा और धीरे से फुसफुसाई, “अब ये लौ मेरी रूह नहीं जलाएगी, बल्कि मेरा रास्ता दिखाएगी।” वो बालकनी पर आई, और देखा