कभी-कभी दीवारें सिर्फ़ ईंटों की नहीं होतीं,वो लोग बनाते हैं — मज़हब, जात और डर से।”राघव और आयरा की मुलाकातें अब रोज़ की बात बन चुकी थीं।कभी वो इमामबाड़े की मरम्मत के बहाने आता,तो कभी आयरा खुद ही कोई छोटा काम निकाल देती,बस ताकि वो कुछ पल उसके पास रह सके।धीरे-धीरे दोनों की बातें किताबों के पन्नों में छुपी शायरी बन गईं।राघव अब सिर्फ़ मजदूर नहीं रहा था, वो आयरा की खामोश दुआ बन गया था।आयरा को उसकी बातों में वो सच्चाई मिलती जो उसने कभी अपने अमीर घर में नहीं देखी थी।एक दिन आयरा ने पूछा —“राघव, तुम्हें डर