धूप ढल चुकी थी। खेतों की मेड़ों पर धुआँ तैर रहा था — कहीं धान की भूसी जल रही थी, कहीं घरों की छतें। झोपड़ियों के दरवाज़े आधे टूटे थे, दीवारों पर कालिख की लंबी लकीरें थीं।गली के कोनों में बिखरे बर्तन पड़े थे — आधी पकी रोटियाँ, अधजली लकड़ियाँ, और छप्पर से लटकती राख, जैसे आसमान तक कोई सिसकी पहुँच गई हो।अभी भी हवा में एक धीमी-सी चमक बाँट रही थी, मानो धरती ने अपने आँसू पूरे शहर के ऊपर फैलाकर धुंधला बना लिया हो। उस गाँव के किनारे से गुजरती सड़क पर अब सोने-चाँदी की चमक नहीं थी।बार-बार