धूप के पहले धागे ने जब खपरैल की छतों पर चुपके से अपनी उँगलियाँ रखीं, तो चंद्रवा गाँव हल्के-हल्के जागने लगा। मेला को बीते कई दिन हो चुके थे पर मेला-रौनक की थकान अब भी आँगनों में पसरी थी—कहीं रंगीन काग़ज़ की फटी झालरें दीवारों से उलझी थीं, कहीं गुड़ और बेसन की मिली-जुली ख़ुशबू अभी तक हवा में बसी थी। गली के मोड़ पर रखा मिट्टी का दीपक बुझ तो चुका था, पर उसकी कालिख में रात की रोशनी की याद बाकी थी।औरतें, जिनके हाथों में