“क्या प्यार इतनी बड़ी सज़ा है,कि इंसान को अपना घर, अपना गाँव छोड़ना पड़े?काश कोई समझ पाता,मैं सिर्फ़ जहान से नहीं,उसकी रूह से जुड़ी हूँ।” सुबह की पहली किरण से पहले ही हम निकल पड़े।कंधे पर सिर्फ़ एक थैला,दिल में ढेरों बोझ।गाँव की गलियों से गुज़रते हुएहर ईंट, हर पेड़, हर कोना हमें रोक रहा था।पर भाई का कदम डगमगाया नहीं। मैंने पीछे मुड़कर आख़िरी बार अपना घर देखा।जैसे वो दीवारें मुझसे कह रही हों—“जा… पर भूल मत जाना,तेरी जड़ें यहीं हैं।” गाँव की मिट्टी पीछे छूट चुकी थी।हम तीनों एक अजनबी रास्ते पर चल रहे थे—भाई का चेहरा सख़्त था,भाभी आँसू पोंछते-पोंछते