रक्तरेखा - 10

शाम ढल चुकी थी। मेले की रौनक अब धीरे-धीरे बुझ रही थी। ढोल-नगाड़ों की आवाज़ें थम गई थीं, पर हवा में अब भी पकौड़ियों के तले हुए बेसन और गुड़ की मिठास की गंध तैर रही थी। बच्चे थककर अपनी माताओं की गोद में सो रहे थे, और बड़े-बुज़ुर्ग अपनी थैलियों में मिठाइयाँ सँभालते घरों की तरफ बढ़ चुके थे।गाँव का चौक अब खाली होने लगा था। बस कहीं-कहीं हँसी की बची-खुची गूँज और किसी थके हुए ढोल की हल्की थाप सुनाई देती थी।चौक से थोड़ी दूर तालाब किनारे आर्यन अपने छोटे भाई-बहनों और कुछ बच्चों संग मेले का बिखरा