रक्तरेखा - 6

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साँझ उतर रही थी। धूप का रंग हल्का सुनहरा हो चुका था, जैसे किसी ने आकाश पर पुराने पीतल की थाली पलट दी हो। खेतों में खड़े धान के पौधे हवा से लहराते थे और उनकी हर सरसराहट में मानो कोई भूली-बिसरी लोककथा दुहराई जाती थी। नदी का पानी अब गहरा नीला हो गया था, और किनारे बैठे बच्चे छोटी-छोटी नावें बनाकर बहा रहे थे। उनके हँसने की आवाज़ें पूरे गाँव की निस्तब्धता को तोड़ती थीं, जैसे जीवन का सबसे सरल संगीत।गाँव वैसे तो सदा ही साधारण था — मिट्टी के घर, कच्ची पगडंडियाँ, और दिन-रात परिश्रम में डूबे लोग।