शेरशाह - कहानी मोहब्बत और फर्ज की

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वह शाम बाकी दिनों जैसी नहीं थी। कमरे में अजीब-सी ख़ामोशी थी, जैसे दीवारें भी मेरी तन्हाई सुन रही हों। बाहर हल्की बारिश हो रही थी, खिड़की पर बूँदों की दस्तक किसी बेचैन दिल की तरह लगातार बज रही थी। ऐसे में मैंने टीवी ऑन किया और सामने स्क्रीन पर उभर आया नाम—“शेरशाह”।शुरुआत में लगा, यह तो बस एक और युद्ध फिल्म होगी। लेकिन जैसे-जैसे दृश्य आगे बढ़ते गए, मुझे महसूस हुआ कि यह केवल परदे की कहानी नहीं है, बल्कि मेरे दिल की गहराई तक उतरने वाली यात्रा है।---पहली झलक – हँसी और मासूमियतफिल्म का पहला हिस्सा हल्का-फुल्का था।