------उस शाम मैं अकेला ही सिनेमा हॉल की ओर चला गया था। ज़िंदगी के तमाम सवालों और उलझनों से थका हुआ मन किसी सहारे की तलाश में था। बाहर का आसमान अँधेरा था, लेकिन भीतर मेरे मन का आसमान और भी बोझिल। टिकट खिड़की से टिकट लिया और भीड़ के साथ हॉल में दाख़िल हो गया। भीड़ में सब अजनबी थे, लेकिन उस भीड़ के बीच भी मैं अपनी तन्हाई को ढो रहा था।फिल्म का नाम था “छावा”। मुझे नहीं पता था कि यह सिर्फ़ एक फिल्म होगी या मेरे भीतर छुपे साहस को पुकारने वाली कोई आवाज़।जैसे ही पर्दा