खामोश ज़िंदगी के बोलते जज़्बात - 8

                       भाग: 8               रचना: बाबुल हक़ अंसारी       "जब सच और जज़्बात आमने-सामने हों…"पिछले खंड से…   "नहीं… नया मैं।"अगली सुबह…आश्रम की बरसाती गैलरी में हवा में हल्की नमी थी।रात को बारिश हुई थी, और पत्तों से टपकते कतरे जैसे कोई अनसुना गीत गा रहे थे।अनया धीरे-धीरे बरामदे में पहुँची, जहाँ नीरव पुराने अख़बार के साथ बैठा था।उसके हाथ में कलम थी, लेकिन वो लिख नहीं रहा था —बस चुपचाप काग़ज़ पर उंगलियों से गोल घुमाता जा रहा था।"मुझसे बात करनी है," अनया ने