जब काव्य घर पहुँची, उसके चेहरे पर साफ़ गुस्से के निशान थे।माँ ने दरवाज़ा खोलते ही पूछा,— "क्या हुआ बेटा?"काव्य ने बैग एक तरफ़ पटकते हुए कहा,— "बस… दिमाग़ ख़राब हो गया है मेरा। पता नहीं कैसा स्कूल है, किसी को तमीज़ ही नहीं!"माँ ने आधा सुनते ही अंदाज़ा लगा लिया,— "ज़रूर किसी से लड़ाई हुई होगी। मुझे तो पक्का यकीन है। तू तो थोड़ी-सी बात पर परेशान हो जाती है।"काव्य ने झुंझलाकर कहा,— "मैं काम से परेशान नहीं हूँ, बात कुछ और है—"लेकिन माँ ने हाथ उठाकर उसे रोक दिया,— "छोड़, रहने दे।"काव्य ने होंठ भींचे,— "ठीक है, मैं