खामोश ज़िंदगी के बोलते जज़्बात - 4

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                  भाग 4        -: "साये जो साथ चलते हैं..."             "रचना: बाबुल हक़ अंसारीपिछले खंड से..."अब कोई और गिनती नहीं चाहिए, बस आज की शाम चाहिए... सिर्फ़ तुम्हारे साथ।"अबकी बार, वक़्त की गिरहें खुल रही थीं...हर खामोशी अब कोई राज़ नहीं, बल्कि एक मुकम्मल इकरार बनती जा रही है---उस पुरानी बेंच पर बैठी आर्या और नीरव की ख़ामोश जोड़ी अब किसी वक़्त की मोहताज नहीं रही।लेकिन उन दोनों की ख़ामोशियों में एक तीसरा साया भी था...जिसे न तो आर्या देख पा रही थी और न