रचना: बाबुल हक़ अंसारी भाग 2. "दरवाज़ा जो कभी खुला नहीं..."नीरव की ज़िंदगी अब धीरे-धीरे अपनी पुरानी लय में लौट रही थी, मगर अंदर कुछ बदल गया था। आर्या के जाने के बाद वो जितना बाहर से शांत था, उतना ही अंदर से टूटा हुआ।एक शाम, जब वो अपने पुराने कॉलेज के गलियारे से गुजर रहा था, किसी ने पीछे से पुकारा —"नीरव?"वो मुड़ा — एक लड़की खड़ी थी, घुंघराले बाल, आंखों में जिज्ञासा और हाथ में एक कैमरा।"मैं अन्वेषा हूँ... फोटोजर्नलिज़्म की स्टूडेंट।"नीरव ने हल्की मुस्कान