रचना: बाबुल हक अंसारीभाग – 1: चुप्पी के उस पारसड़कों पर रोज़ की तरह भीड़ दौड़ रही थी।हर कोई कहीं पहुंचने की जल्दी में था।लेकिन उन्हीं चेहरों के बीच एक चेहरा ऐसा भी था, जो न दौड़ रहा था, न रुक रहा था — बस चल रहा था... अपनी ही रफ़्तार में, जैसे किसी और ही दुनिया में हो।उसका नाम था — नीरव।नीरव, यानी शांत... लेकिन हकीकत में वो शांत नहीं था।उसकी खामोशी के पीछे एक समंदर था, जो रोज़ भीतर ही भीतर उफनता था।नीरव का जीवन एक सधे हुए रूटीन की तरह था —सुबह तय समय पर उठना, नाश्ता