"जब इंतज़ार भी एक इबादत बन जाता है...."वक़्त गुज़रता रहा….दिन महीने बने, और महीने धीरे-धीरेयादों की शक्ल में मेरी डायरी के पन्नों में बदलते गए।शानवी अब बहुत कम लिखती थी।उसके मैसेज छोटे होते, लेकिन उनमें गहराई होती।वो एक "ठीक हूं" कहती,और मैं उसमें उसकी थकान, उसकी जिम्मेदारियां,उसका अकेलापन तक महसूस कर लेता।इश्क़ अब इबादत बन चुका था।जिस तरह कोई मंदिर में बैठकरप्रेम नहीं माँगता, सिर्फ महसूस करता है….उसी तरह मैं भी अब कुछ नहीं माँगता था।न उसका वक्त, न उसकी कसमें न उसकी बातें, न उसका वो प्यारन उसका "मैं भी तुम्हें चाहती हूं" कहना।बस एक एहसास काफी था….कि वो कहीं