शाम का समय वैसे तो हर जगह का प्यारा होता है,लेकिन गाँव की शामों की बात ही कुछ और होती है।गाँव में शाम होती नहीं, उतरती है —धीरे-धीरे, बिल्कुल नीम के पत्तों पर ओस की बूंदों जैसी।जब सूरज ढलता था, और आसमान सुनहरे से नारंगी रंग में रंग जाता था,तब ऐसा लगता था जैसे पूरा गाँव अपनी थकान को एक सादी-सी मुस्कान में लपेटकर आराम करने जा रहा हो।खेतों से लौटते किसान, बैलों की गले की घंटियाँ, और बगल के तालाब से आती मेंढकों की टर्र-टर्र...ये सब मिलकर एक ऐसा संगीत रचते थे, जिसमें न लय की कमी होती थी,