सुबह की हल्की धूप अभी-अभी बनारस की सड़कों पर पड़ी थी।रास्ते में रिक्शों की खटर-पटर, मंदिर की घंटियाँ और चाय की दुकानों से उठती भाप की ख़ुशबू हवा में घुली हुई थी।प्रकाश, अपने कंधे पर वही पुराना झोला डाले, आज फिर तेज़ क़दमों से विश्वविद्यालय की ओर बढ़ रहा था।वो अपनी ही सोच में डूबा था —कल की क्लास, किताबें, और हाँ... राधिका की वो मुस्कान जो थप्पड़ के बाद भी किसी चुटकी की तरह मन में चुभ रही थी।इसी बीच, एक मोड़ पर भीड़ दिखाई दी।कोई चिल्ला रहा था, कोई देख रहा था,पर कोई मदद नहीं कर रहा था।प्रकाश