काली रात

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"कभी-कभी अंधेरे में वो नहीं छुपा होता जिससे हम डरते हैं, बल्कि वही होता है जिसे हम जानते थे... बस पहचान नहीं पाते।"सुबह के तीन बज रहे थे। गाँव के हर कोने में सन्नाटा पसर चुका था, लेकिन बूढ़ी हवाओं में एक अजीब-सी फुसफुसाहट थी — जैसे कोई बहुत पुराना राज अब बाहर आने को छटपटा रहा हो। काली रात का वो हिस्सा था जब परछाइयाँ भी खुद से डरती थीं। और तभी, 'तलवारपुर' के पास वाले सुनसान कुएं से एक औरत की हँसी गूंजी — न तेज, न धीमी, बस इतनी कि रीढ़ की हड्डी में एक सिहरन दौड़