भाग 4: "कहानी जिसमें रूह बसती है" रात ढल चुकी थी, पर हवेली की दीवारों पर वक़्त ठहर गया था।हमने अपने नाम उस अधूरे पन्ने पर लिख दिए थे...जैसे किसी रुकी हुई दुआ को अपनी मंज़िल मिल गई हो।---सुबह की किरणें हवेली की पुरानी खिड़कियों से छनकर भीतर आ रही थीं।बगीचे में चमेली की खुशबू और धूप की कोमलता से हवेली एक नई ऊर्जा से भर गई थी।हम दोनों उसी बाग़ में बैठे थे — जहाँ कल रात वो अनमोल क्षण बीते थे।राज ने अचानक पूछा,"क्या तुम्हें लगता है ये सब कोई कहानी थी?"मैंने उसका हाथ थामते हुए कहा,"कहानी थी…