पिशाचनी का श्राप - 3

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शांता के मंदिर के द्वार पर गिरते ही मानो सारा समय ठहर गया। विद्या दौड़ती हुई आई और माँ को अपने सीने से लगा लिया। उसकी आँखों से आंसुओं की धार बह निकली। "माँ... माँ! मैंने कहा था न, मैं तुम्हें वापस लाऊँगी...!" शांता की सांसें धीमी थीं, चेहरा पीला और कपड़े चिथड़े। लेकिन वह जिंदा थी। यही सबसे बड़ा चमत्कार था। गांववाले धीरे-धीरे मंदिर के बाहर जमा हो गए थे। कुछ की आंखों में पछतावा था, कुछ अब भी डरे हुए थे, और कुछ खामोश — जैसे वर्षों का बोझ उनकी जुबान पर ताले लगा गया हो। पंडित हरिदत्त