रंग है रवाभाई !

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यह उस समय की बात है, जब धरती का अमृत और इंसानियत का जल अभी तक सूखा नहीं था।विक्रम संवत 1966 का चैत्र महीना था, स्थान था सौराष्ट्र।आसमान से मानो फूल बरस रहे हों। भावनगर के गोहिलवाड़ क्षेत्र की वह रसीली मिट्टी,जो तेज़ गर्मी के दिनों में भी, गर्मियों की ज्वार और रजका की हरी ओढ़नी मेंशिल्प की लहरों का आनंद लेती थी। कणबी समुदाय की छोटी बच्चियाँ, गाजर, मूली या मूँग की कोमल फलियाँ चबाते हुएखेतों की क्यारियों की देखभाल करती थीं, और शाम ढले, सादगी से गुनगुनाती थीं: कौन भाई के कुएं पर कचुड़ियाँ खेलती हैं,कौन भाई की