️ "सन्नाटे की आवाज़" – एक बेरोज़गार युवा की अनसुनी दास्तान️ "सन्नाटे की आवाज़" – एक बेरोज़गार युवा की अनसुनी दास्तान कमरे में पंखा चल रहा था, लेकिन हवा में घुटन थी। दोपहर के ढाई बजे का वक्त था, जब शहर की गलियाँ सुनी होती हैं और नींद भी किसी मजबूरी की तरह आती है। धीरे से अपनी किताबें उठाईं — वही किताबें, जिन्हें पढ़ते हुए उसने सोचा था कि एक दिन अफ़सर बनेगा, माँ को शॉल ओढ़ाएगा, पापा की मेहनत को आराम में बदलेगा। लेकिन उन किताबों के पन्नों से अब सिर्फ़ धूल उड़ती थी, और सपनों से बुझे