ज़हन की गिरफ़्त - भाग 2

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भाग 2: आईने के पीछे की सनाकमरे की दीवारें जैसे हर दिन सिकुड़ती जा रही थीं — या शायद आरव का दिमाग़। कभी जिस कमरे को उसने शांति की जगह समझा था, अब वही चारदीवारी उसे कैद लगती थी। दीवारों पर उग आए फफूंद के धब्बे, पपड़ी-सी उखड़ी पुरानी पेंटिंग, और बल्ब की थकी हुई पीली रोशनी के नीचे फैलते हल्के साये — ये सब अब उसे देखने लगे थे। हाँ, देखने लगे थे। जैसे हर कोना, हर दाग़ उसकी नज़रों से टकरा कर कुछ कह रहा हो। आरव की आँखें अब चीज़ों को सिर्फ़ देखती नहीं थीं — वो