ज़हन की गिरफ़्त - भाग 1

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भाग 1: नींद से पहले की रात कमरे में सिर्फ़ एक बल्ब जल रहा था — पीली, थकी हुई रोशनी में दीवारें चुपचाप साँस ले रही थीं। एक खामोशी जो सतह पर ठंडी लगती थी, पर भीतर आग जैसी सुलगती। आरव की आँखें छत पर टिकी थीं, लेकिन उसका दिमाग़ कहीं और भटक रहा था। दीवार पर टिक-टिक करती घड़ी की आवाज़ उसके दिल की धड़कनों से मेल खा रही थी। हर रात की तरह, आज भी वही नर्स आई थी। उसके हाथ में ट्रे थी — दवा, पानी, और वही बेमन मुस्कान। “सो जाइए, सर,” वो बोली। “कल फिर