क़यामत - हरमिंदर चहल - सुभाष नीरव (अनुवाद)

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कहते हैं कि दुख, विषाद या हताशा किसी सरहद या मज़हब की ग़ुलाम नहीं होती। किसी भी देश, धर्म अथवा संप्रदाय को मानने वाली हर माँ को उसके बच्चों से बिछुड़ने का दुख हर जगह..हर माहौल में एक जैसा होता है। इसी तरह आतंकवाद से दिन-रात त्राहिमाम करती जनता अथवा उससे जूझने वाले हर फौजी..हर सिपाही के मन में भी एक जैसी ही भावनाएं उमड़ती हैं। भले ही वे भारत या ईरान-इराक-अफ़गानिस्तान अथवा किसी भी अन्य मुल्क से ताल्लुक रखते हों।दोस्तों.. आज मैं यहाँ इसी तरह के विषय पर लिखे गए एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ