मुलाक़ात - एक अनकही दास्तान - 7

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रेलवे स्टेशन की भीड़ भले ही रोज़ की तरह थी—ट्रेनों की आवाज़ें, चायवालों की पुकार, भागते कदम, और अपने-अपने गंतव्य की ओर बढ़ते चेहरे—लेकिन उस शाम की हवा में एक अजीब-सी घबराहट तैर रही थी। जैसे समय खुद थक चुका हो… रुक जाना चाहता हो, कुछ कहना चाहता हो, पर अपनी नियति से बंधा… आगे बढ़ने के लिए मजबूर हो।संयोगिता की साँसें बेतहाशा चल रही थीं, जैसे हर धड़कन उसके भीतर से निकलकर स्टेशन की फर्श पर बिखर रही हो। उसका घाघरा रेगिस्तान की मिट्टी से सना हुआ था, उसके पैरों की थकान ने जैसे आत्मा तक को थाम लिया