कुछ दिन बाद…मारिया अब बहुत कम बोलती थी, पर उसकी ख़ामोशियाँ बहुत कुछ कहने लगी थीं।छोटे के साथ खेलते हुए भी,नानी की कहानियाँ सुनते हुए भी,उसके ज़हन में मीर का चेहरा बार-बार तैर जाता।"तुम मेरी हो... मीर सुल्तान की..."वो शब्द हर बार उसके भीतर कुछ हिला देते।कभी किचन में चाय बनाते हुए वो मुस्कुरा देती,फिर तुरंत खुद को टोकती,"क्या हो गया है मुझे..."और चेहरा दोनों हथेलियों में छुपा लेती।उस रात चाँद कुछ ज़्यादा ही पास महसूस हो रहा था।कमरे की खिड़की खुली थी,मारिया वहीं बैठी थी —गोदी में छोटे का सिर रखा हुआ,उसकी मासूम सांसें एक सुकून दे रही थीं।तभी