भारत की रचना - 17

  • 498
  • 135

 भारत की रचना / धारावाहिकसत्रहवां भाग        भारतीय नारी तो वैसे भी रूढ़ियों से दूसरों के सहारे पर आस लगाकर सदा जीती आई है, आज से नहीं, परन्तु युगों-युगों से. विधाता का ये नियम पहले भी था, आज भी है और कल भी रहेगा. कहाँ तक उसके इस नियम की जंजीरों में नारी जकड़ी रहेगी? पिसेगी- अपने जीवन की सारी आशाओं पर गल-गलकर, उस पर धूल के फूल सजाती रहेगी? कोई नहीं जानता है.       रचना हवालात की कोठरी में पड़ी हुई अपने प्रति सोचती थी और रोती थी. ऐसा था, उसका भाग्य- भाग्य की विडम्बना- हाथ की